जैन धर्म विश्व का प्राचीन धर्म है
सुनील जैन खिरकिया ।

उपलब्ध पुरातात्विक तथ्यों के निष्पक्ष विश्लेषण से यह निर्विवाद हो गया है कि जैन धर्म एक प्राचीन धर्म है, जिसके वातरशना मुनियों, केशियों, व्रात्य-क्षत्रियों के रूप में ऋग्वेद, श्रीमद्भागवत आदि गं्रथों में प्रचुर उल्लेख मिलते हैं।जैन धर्म की प्राचीनता के साथ ही इस बात को भी स्वीकार किया गया है कि यह एक परम्परावादी धर्म न होकर पुरूषार्थ मूलक और प्रगतिशील धर्म है तथा राष्ट्रीय चेतना के विकास में उसकी एक महत्तवपूर्ण भूमिका रही है। विज्ञान के क्षेत्र उसके परमाणुवादी सूक्ष्म चिंतन को कभी भुलाया नहीं जा सकता।
जैन धर्म की लोकोपयोगिता और महत्ता के संबध में जैनेतर विद्वानों में विपुल शोध और समीक्षव हुआ है। प्रायः सभी मानव-निष्ठ धर्म और सम्प्रदाय जैन धर्म की रचनात्मक अहिंसक दृष्टि और सहिष्णुतापूर्ण जीवन शैली से सहमत है। जैन धर्म की चिंतन पद्घति सहिष्णु, क्रांतिनिष्ठ और प्रगतिशील हैं, वह युगो-युगो से सत्य और सम्यकत्व के अन्वेषण में अनर्थक प्रवृत्त है। उसने धार्मिक अन्तर्विरोधो को सदैव एक रचनात्मक मोड़ दिया है और अपनी स्वस्थ्य चिंतन प्रक्रिया द्वारा अहिंसा के तत्व चिंतन को स्थापित किया है। उसने व्यक्ति की लुप्त होती स्वाधीनता और प्रतिष्ठा की रक्षा की और समाज को जीने की एक वैज्ञानिक कला दृष्टि प्रदान की है। यह जगत को सुखद और आंनद प्रद बनाने वाला धर्म है। इसका चिंतन वैज्ञानिक है तथा तथ्यों का प्रतिपादन तर्कसम्मत है।
जैन धर्म सम्यकत्व (अर्थात जो सही है, हर हालत में हर जगह हर वक्त), औचित्य और उत्तमता पर बल देता है। जो भी हो अपनी श्रेणी में सर्वोत्तम हो, जो भी हो अपनी जगह वास्तविक हो और जो भी हो सत्य हो, ये जैन धर्म के प्रतिपादनों में अन्तर्मुक्त प्रेरक तत्व हैं। जैन धर्म कहता है- जो सत्य है उसे उसकी संपूर्ण सापेक्षाओं में ढूढों, जो उचित है उसे कहो-करो और अन्ततः देखो कि सत्य तक तुम्हारे जीवन के जहाज का लंगर डल गया है। इतने सबसे साथ जो सर्वोत्तम है, श्रेयष्कर है उसे उत्कृष्ठ और निर्मल साधनों से प्राप्त कर किसी सुविधा के लिये सिद्घांतो का समर्पण मत करो। रास्ता लम्बा भले ही हो, किन्तु अपावन न हो। उत्कृष्ठता जहां भी हो, उसका वरण करो।वस्तुतः जैन धर्म 'जन धर्म' है। इसमें जीवन को ऊचां उठाने वाले दस धर्मो का बड़ा विशद विवेचन हुआ है।
इन दस धर्मो के नाम हैं :- उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम सत्य, उत्तम शौच, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिंचन्य और उत्तम ब्रम्हचर्य।जैन होने का अर्थजैन होना महत्वपूर्ण है, किंतु उसके अर्थों को अपने जीवन की गहराईयों में उतारना, वैसा जीवन जीना एक परमश्रेष्ठ पुरूषार्थ है। हम उस पुरूषार्थ के प्रति समर्पित रहे ऐसी मंगल कामना हम सबको एक दूसरे के लिए करना चाहिये। जैन दर्शन की दार्शनिक पीठिका को समझना और उनको आचरण में उतारने की शक्ति का नाम ही जैनत्व है।
जैन शब्द जिन से बना है। जिन का अर्थ है जीतने वाला। जो अपनी इंद्रियों, मानसिक विकारों, इच्छाओं, वासनाओं को जीतता है, वह जिन है। जिन कोई ईश्वरीय अवतार नहीं है। अपितु काम-क्रोधादिक विकारों को जीतने वाला सामान्य मनुष्य ही है। जिनत्व की प्राप्ति से पूर्व वे भी साधारण मनुष्य थे। हम जैसे साधारण प्राणी भी अपनी आध्यात्मिक साधना द्वारा जिनत्व को उपलब्ध कर सकते है, प्रत्येक मनुष्य में जिन बनने की शक्ति प्रच्छन्न रूप से विद्यमान है। अपनी साधना के द्वारा उस प्रच्छन्न शक्ति की अभिव्यक्ति ही जिनत्व है।जिन के अनुयायी ही जैन कहलाते हैं।
जैन का अर्थ है जिन का अनुसरण-अनुगमन करने वाला, जिन के चरण पर चलने वाला जो जितेन्द्रीय है, वहीं जिन है। भावना और कार्य दोनों में शुचिता का नाम ही जैनाचार है। हजारों वर्षो के प्रयोग व अनुभव से जैनाचार्यो ने कहा है कि जीवन में जिन जीवन शैली पर श्रृद्घा और तदनुकूल जीवन पद्घति को अपनाकर जैन होने का अधिकार पाया जा सकता है। यह जीवन पद्घति विज्ञान सम्मत, मनोवैज्ञानिक विश्लेषणों पर आधारित, तथ्यों के निरंतर पठन-पाठन और उसके निरंतर अभ्यास से विकसित की जा सकती है। इस विकास यात्रा का प्रत्येक राही जैन है।
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